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गाना बंद हो गया और एक क्षण के बाद कृष्णचन्द्र ने एक दीर्घकाल जटाधारी साधु को अपनी ओर आते देखा। साधु ने उनका नाम और स्थान पूछा। उसके भाव से ऐसा ज्ञात हुआ कि वह उनसे परिचित है। कृष्णचन्द्र आगे बढ़ना चाहते थे कि उसने पूछा– इस समय आप इधर कहां जा रहे हैं?
कृष्णचन्द्र– कुछ ऐसा ही काम आ पड़ा है।
साधु– आधी रात को आपका गंगातट पर क्या काम हो सकता है?
कृष्णचन्द्र ने रुष्ट होकर उत्तर दिया– आप तो आत्मज्ञानी हैं। आपको स्वयं जानना चाहिए।
साधु– आत्मज्ञानी तो मैं नहीं हूं, केवल भिक्षुक हूं। इस समय मैं आपको उधर न जाने दूंगा।
कृष्णचन्द्र– आप अपनी राह जाइए। मेरे काम में विघ्न डालने का आपको क्या अधिकार है?
साधु– अधिकार न होता तो मैं आपको रोकता ही नहीं। आप मुझसे परिचित नहीं हैं, पर मैं आपका धर्मपुत्र हूं, मेरा नाम गजाधर पांडे है!
कृष्णचन्द्र– ओहो! आप गजाधर पांडे है। आपने यह भेष कब से धारण कर लिया? आपसे मिलने की मेरी बहुत इच्छा थी। मैं आपसे कुछ पूछना चाहता था।
गजाधर– मेरा स्थान गंगातट पर एक वृक्ष के नीचे है। चलिए, वहां थोड़ी देर विश्राम कीजिए। मैं सारा वृत्तांत आपसे कह दूंगा।
रास्ते में दोनों मनुष्यों में कुछ बातचीत न हुई। थोड़ी देर में वे उस वृक्ष के नीचे पहुंच गए, जहां एक मोटा– सा कुंदा जल रहा था। भूमि पर पुआल बिछा हुआ था और एक मृगचर्म, एक कमंडल और पुस्तकों का एक बस्ता उस पर रखा हुआ था।
कृष्णचन्द्र आग तापते हुए बोले– आप साधु हो गए हैं, सत्य ही कहिएगा, सुमन की यह कुप्रवृत्ति कैसे हो गई?
गजाधर अग्नि के प्रकाश में कृष्णचन्द्र के मुख की ओर मर्मभेदी दृष्टि से देख रहे थे। उन्हें उनके मुख पर उनके हृदय के समस्त भाव अंकित देख पड़ते थे। वह अब गजाधर न थे। सत्संग और विरक्ति ने उनके ज्ञान को विकसित कर दिया था। वह उस घटना पर जितना विचार करते थे, उतना ही उन्हें पश्चात्ताप होता था। इस प्रकार अनुतप्त होकर उनका हृदय सुमन की ओर से बहुत उदार हो गया था। कभी-कभी उनका जी चाहता था कि चलकर उसके चरणों पर सिर रख दूं।
गजाधर बोले– इसका कारण मेरा अन्याय था। यह सब मेरी निर्दयता और अमानुषीय व्यवहार का फल है। वह सर्वगुण संपन्न थी। वह इस योग्य थी कि किसी बड़े घर की स्वामिनी बनती। मुझ जैसा दुष्ट, दुरात्मा, दुराचारी मनुष्य उसके योग्य न था। उस समय मेरी स्थूल दृष्टि उसके गुणों को न देख सकी। ऐसा कोई कष्ट न था, जो उस देवी को मेरे साथ न झेलना पड़ा हो। पर उसने कभी मन मैला न किया। वह मेरा आदर करती थी। पर उसका यह व्यवहार देखकर मुझे उस पर संदेह होता था कि वह मेरे साथ कोई कौशल कर रही है। उसका संतोष, उसकी भक्ति, उसकी गंभीरता मेरे लिए दुर्बोध थी। मैं समझता था, वह मुझसे कोई चाल चल रही है। अगर वह मुझसे छोटी-छोटी वस्तुओं के लिए झगड़ा करती, रोती, कोसती, ताने देती, तो उस पर मुझे विश्वास होता। उसका ऊंचा आदर्श मेरे अविश्वास का कारण हुआ। मैं उसके सतीत्व पर संदेश करने लगा। अंत में वह दशा हो गई कि एक दिन, रात को एक सहेली के घर पर केवल जरा विलंब हो जाने के कारण मैंने उसे घर से निकाल दिया।
कृष्णचन्द्र बात काटकर बोले– तुम्हारी बुद्धि उस समय कहां गई थी? तुमको जरा भी ध्यान न रहा कि तुम इस अपनी निर्दयता से कितने बड़े कुल को कलंकित कर रहे हो?
गजाधर– महाराज, अब मैं क्या बताऊं कि मुझे क्या हो गया था? मैंने फिर उसकी सुध न ली। पर उसका अंतःकरण शुद्ध था। पापाचरण से उसे घृणा थी। अब वह विधवाश्रम में रहती है और सब उससे प्रसन्न हैं। उसकी धर्मनिष्ठा देखकर लोग चकित हो जाते हैं।
गजाधर की बातें सुनकर कृष्णचन्द्र का हृदय सुमन की ओर से कुछ नरम पड़ गया। लेकिन वह जितना ही इधर नरम था, उतना ही दूसरी ओर कठोर हो गया। जैसे साधारण गति से बहती जलधारा दूसरी ओर और भी वेग से बहने लगती है। उन्होंने गजाधर को सरोष नेत्रों से देखा, जैसे कोई भूखा सिंह अपने शिकार को देखता है। उन्हें निश्चय हो रहा था कि यह मनुष्य मेरे कुल को कलंकित करने वाला है। इतना ही नहीं उसने सुमन के साथ भी अन्याय किया है। उसे नाना प्रकार के कष्ट दिए हैं। क्या मैं उसे केवल इसलिए छोड़ दूं कि वह अब अपने दुष्कृत्यों पर लज्जित है? लेकिन उसने ये बातें मुझसे कह क्यों दीं? कदाचित् वह समझता है कि मैं उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यही बात है, नहीं तो वह मेरे सामने अपना अपराध इतनी निर्भयता से क्यों स्वीकार करता? कृष्णचन्द्र ने गजाधर के मनोभावों को न समझा। वह क्षण-भर आग की तरफ ताकते रहे, फिर कठोर स्वर में बोले– गजाधर, तुमने मेरे कुल को डुबो दिया। तुमने मुझे कहीं मुंह दिखाने योग्य न रखा। तुमने मेरी लड़की की जान ले ली– उसका सत्यानाश कर दिया, तिस पर भी तुम मेरे सामने इस तरह बैठे हो, मानो कोई महात्मा हो। तुम्हें चुल्लू-भर पानी में डूब मरना चाहिए।
गजाधर जमीन की मिट्टी खुरच रहे थे। उन्होंने सिर न उठाया।
कृष्णचन्द्र फिर बोले– तुम दरिद्र थे। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं। तुम अगर अपनी स्त्री का उचित रीति से पालन-पोषण नहीं कर सके, तो इसके लिए तुम्हें दोषी नहीं ठहराता। तुम उसके मनोभावों को नहीं जान सके, उसके सद्विचारों का मर्म नहीं समझ सके, इसके लिए भी मैं तुम्हें दोषी नहीं ठहराता। तुम्हारा अपराध यह है कि तुमने उसे घर से निकाल दिया। तुमने उसका सिर क्यों न काट लिया? अगर तुमको उसके पातिव्रत पर संदेह था, तो तुमने उसे मार क्यों नहीं डाला? और यदि इतना साहस नहीं था, तो स्वयं क्यों न प्राण त्याग दिया? विष क्यों न खा लिया? अगर तुमने उसके जीवन का अंत कर दिया होता, तो उसकी यह दुर्दशा न हुई होती, मेरे कुल में यह कलंक न लगता। तुम भी कहोगे कि मैं पुरुष हूं? तुम्हारी इस कायरता पर, निर्लज्जता पर धिक्कार है। जो पुरुष इतना नीच है कि अपनी स्त्री को दूसरों से प्रेम करते देखकर उसका रुधिर खौल नहीं उठता, वह पशुओं से भी गया-बीता है।
गजाधर को अब मालूम हुआ कि सुमन को घर से निकालने की बात कहकर वह ब्रह्मफांस में फंस गए। वह मन में पछताने लगे कि उदारता की धुन में मैं इतना असावधान क्यों हो गया? तिरस्कार की मात्रा भी उनकी आशा से अधिक हो गई। वह न समझे कि तिरस्कार यह रूप धारण करेगा और उससे मेरे हृदय पर इतनी चोट लगेगी। अनुतप्त हृदय वह तिस्कार चाहता है, जिसमें सहानुभूति और सहृदयता हो, वह नहीं जो अपमान सूचक और क्रूरतापूर्ण हो। पका फोड़ा नश्तर का घाव चाहता है, पत्थर का आघात नहीं। गजाधर अपने पश्चाताप पर पछताए। उनका मन अपना पूर्वपक्ष समर्थन करने के लिए अधीर होने लगा।
कृष्णचन्द्र ने गरजकर कहा– क्यों, तुमने उसे मार क्यों नहीं डाला?
गजाधर ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया– मेरा हृदय इतना कठोर नहीं था?
कृष्णचन्द्र– तो घर से क्यों निकाला?
गजाधर– केवल इसलिए कि उस समय मुझे उससे गला छुड़ाने का और कोई उपाय न था।
कृष्णचन्द्र ने मुंह चढ़ाकर कहा– क्यों, जहर खा सकते थे?
गजाधर इस चोट से बिलबिलाकर बोले– व्यर्थ में जान देता?
कृष्णचन्द्र– व्यर्थ जान देना, व्यर्थ जीने से अच्छा है।
गजाधर– आप मेरे जीने को व्यर्थ नहीं कह सकते। आपसे पंडित उमानाथ ने न कहा होगा, पर मैंने इसी याचना-वृत्ति से उन्हें शान्ता के विवाह के लिए पंद्रह सौ रुपए दिए हैं और इस समय भी उन्हीं के पास यह एक हजार रुपए लेकर जा रहा था, जिससे वह कहीं उसका विवाह कर दें।
यह कहते-कहते गजाधर चुप हो गए। उन्हें अनुभव हुआ कि इस बात का उल्लेख करके मैंने अपने ओछेपन का परिचय दिया। उन्होंने संकोच से सिर झुका लिया।
कृष्णचन्द्र ने संदिग्ध स्वर से कहा– उन्होंने इस विषय में मुझसे कुछ नहीं कहा।
गजाधर– यह कोई ऐसी बात भी नहीं थी कि वह आपसे कहते। मैंने केवल प्रसंगवश कह दी। क्षमा कीजिएगा मेरा अभिप्राय केवल यह है कि आत्मघात करके मैं संसार का कोई उपकार न कर सकता था। इस कालिमा ने मुझे अपने जीवन को उज्ज्वल बनाने पर बाध्य किया है। सोई हुई आत्मा को जगाने के लिए हमारी भूलें एक प्रकार की दैविक यंत्रणाएं हैं, जो हमको सदा के लिए सतर्क कर देती हैं। शिक्षा, उपदेश, संसर्ग किसी से भी हमारे ऊपर सुप्रभाव नहीं पड़ता, जितना भूलों के कुपरिणाम को देखकर संभव है आप इसे मेरी कायरता समझें, पर वही कायरता मेरे लिए शांति और सदुद्योग की एक अविरल धारा बन गई है। एक प्राणी का सर्वनाश करके आज मैं सैकड़ों अभागिन कन्याओं का उद्घार करने योग्य हुआ हूं और मुझे यह देखकर असीम आनंद हो रहा है कि यही, सद्प्रेरणा सुमन पर भी अपना प्रभाव डाल रही है। मैंने अपनी कुटी में बैठे हुए उसे कई बार गंगा-स्नान करते देखा है और उसकी श्रद्धा तथा धर्मनिष्ठा को देखकर विस्मित हो गया हूं। उसके मुख पर शुद्धांतःकरण की विमल आभा दिखाई देती है। वह अगर पहले कुशल गृहिणी थी, तो अब परम विदुषी है और मुझे विश्वास है कि एक दिन वह स्त्री समाज का श्रृंगार बनेगी।
कृष्णचन्द्र ने पहले इन वाक्यों को इस प्रकार सुना, जैसे कोई चतुर ग्राहक व्यापारी की अनुरोधपूर्ण बातें सुनता है। वह कभी नहीं भूलता कि व्यापारी उससे अपने स्वार्थ की बातें कर रहा है। लेकिन धीरे-धीरे कृष्णचन्द्र पर इन वाक्यों का प्रभाव पड़ने लगा। उन्हें विदित हुआ कि मैंने उस मनुष्य को कटु वाक्य कहकर दुःख पहुंचाया, जो हृदय से अपनी भूल पर लज्जति है और जिसके एहसानों के बोझ के नीचे मैं दबा हुआ हूं। हा! मैं कैसा कृतघ्न हूं! यह स्मरण कठोर हो जाता है, उतनी ही जल्दी पसीज भी जाता है।
गजाधर ने उनके मुख की ओर करुण नेत्रों से देखकर कहा– इस समय यदि आप साधु के अतिथि बन जाएं तो कैसा हो? प्रातःकाल मैं आपके साथ चलूंगा। इस कंबल में आपको जाड़ा न लगेगा।
कृष्णचन्द्र ने नम्रता से कहा– कंबल की आवश्यकता नहीं है। ऐसे ही लेट रहूंगा।
गंजाधर– आप समझते हैं कि मेरा कंबल ओढ़ने में आपको दोष लगेगा, पर यह कंबल मेरा नहीं है। मैंने इसे अतिथि-सत्कार के लिए रख छोड़ा है।
कृष्णचन्द्र ने अधिक आपत्ति नहीं की। उन्हें सर्दी लग रही थी। कंबल ओढ़कर लेटे और तुरंत ही निद्रा में मग्न हो गए, पर वह शांतिदायिनी निद्रा नहीं थी, उनकी वेदनाओं का दिग्दर्शन मात्र थी। उन्होंने स्वप्न देखा कि मैं जेलखाने में मृत्युशैया पर पड़ा हुआ हूँ और जेल का दारोगा मेरी ओर घृणित भाव से देखकर कह रहा है कि तुम्हारी रिहाई अभी नहीं होगी। इतने में गंगाजली और उनके पिता दोनों चारपाई के पास खड़े हो गए। उनके मुंह विकृत थे और उन पर कालिमा लगी हुई थी। गंगाजली ने रोकर कहा, तुम्हारे कारण हमारी यह दुर्दशा हो रही है। पिता ने क्रोधयुक्त नेत्रों से देखते हुए कहा, क्या हमारी कालिमा ही तेरे जीवन का फल होगी, इसीलिए हमने तुमको जन्म दिया था? अब यह कालिमा कभी हमारे मुख से न छूटेगी। हम अनंतकाल तक यह यंत्रणा भोगते रहेंगे। तूने केवल चार दिन जीवित रहने के लिए हमें यह कष्ट-भोग दिया है, पर हम इसी दम तेरा प्राण हरण करेंगे। यह कहते हुए वह कुल्हाड़ा लिए हुए उन पर झपटे।
कृष्णचन्द्र की आंखें खुल गईं। उनकी छाती धड़क रही थी। सोते वक्त वह भूल गए थे कि मैं क्या करने घर से चला था। इस स्वप्न ने उसका स्मरण करा दिया। उन्होंने अपने को धिक्कारा। मैं कैसा कर्त्तव्यहीन हूं। उन्हें निश्चित हो गया कि यह स्वप्न नहीं, आकाशवाणी है।
गजाधर के कथन का असर धीरे-धीरे उनके हृदय से मिटने लगा। सुमन अब चाहे सती हो जाए, साध्वी हो जाए, इससे वह कालिमा तो न मिट जाएगी, जो उसने हमारे मुख में लगा दी है। यह महात्मा कहते हैं, पाप में सुधार की बड़ी शक्ति है। मुझे तो वह कहीं दिखाई नहीं देती। मैंने भी तो पाप किए हैं, पर कभी इस शक्ति का अनुभव नहीं किया। कुछ नहीं, यह सब इनके शब्दजाल हैं, इन्होंने अपनी कायरता को शब्दों के आडंबर में छिपाया है। यह मिथ्या है, पाप से पाप ही उत्पन्न होगा। अगर पाप से पुण्य होता, तो आज संसार में कोई पापी न रह जाता।
यह सोचते हुए वह उठ बैठे। गजाधर भी आग के पास पड़े हुए थे। कृष्णचन्द्र चुपके से उठे और गंगातट की ओर चले। उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब इन वेदनाओं का अंत ही करके छोड़ूंगा।
चंद्रमा अस्त हो चुका था। कुहरा और भी सघन हो गया। अंधकार ने वृक्ष, पहाड़ और आकाश में कोई अंतर न छोड़ा था। कृष्णचन्द्र एक पगडंडी पर चल रहे थे, पर दृष्टि की अपेक्षा अनुमान से अधिक काम लेना पड़ता था। पत्थरों के टुकड़ों और झाड़ियों से बचने में वह ऐसे लीन हो रहे थे कि अपनी अवस्था का ध्यान न था।
कगार के किनारे पहुंचकर उन्हें कुछ प्रकाश दिखाई दिया। वह नीचे उतरे। गंगा कुहरे की मोटी चादर ओढ़े पड़ी कराह रही थी। आसपास के अंधकार और गंगा में केवल प्रवाह का अंतर था। यह प्रवाहित अंधकार था। ऐसी उदासी छाई हुई थी, जो मृत्यु के बाद घरों में छा जाती है।
कृष्णचन्द्र नदी के किनारे खड़े थे। उन्होंने विचार किया, हाय! अब मेरा अंत कितना निकट है। एक पल में यह प्राण न जाने कहां चले जाएंगे। न जाने क्या गति होगी? संसार से आज नाता टूटता है। परमात्मन्, अब तुम्हारी शरण आता हूं, मुझ पर दया करो, ईश्वर मुझे संभालो।
इसके बाद उन्होंने एक क्षण अपने हृदय में बल का संचार किया। उन्हें मालूम हुआ कि मैं निर्भय हूं। वह पानी में घुसे। पानी ठंडा था। कृष्णचन्द्र का सारा शरीर दहल उठा। वह घुसते हुए चले गए। गले तक पानी में पहुंचकर एक बार फिर विराट तिमिर को देखा। यह संसार-प्रेम की अंतिम घड़ी थी। यह मनोबल की, आत्माभिमान की अंतिम परीक्षा थी। अब तक उन्होंने जो कुछ किया था, वह केवल इसी परीक्षा की तैयारी थी। इच्छा और माया का अंतिम संग्राम था। माया ने अपनी संपूर्ण शक्ति से उन्हें अपनी ओर खींचा। सुमन विदुषी वेश में दृष्टिगोचर हुई, शान्ता शोक की मूर्ति बनी हुई सामने आई। अभी क्या बिगड़ा है? क्यों न साधु हो जाऊं? मैं ऐसा कौन बड़ा आदमी हूं कि संसार मेरे नाम और मर्यादा की चर्चा करेगा? ऐसी न जाने कितनी कन्याएं पाप के फंदे में फंसती हैं। संसार किसकी परवाह करता है? मैं मूर्ख हूं, जो यह सोचता हूं कि संसार मेरी हंसी उड़ाएगा। इच्छा-शक्ति ने कितना ही चाहा कि इस तर्क का प्रतिवाद करे, पर वह निष्फल हुई, एक डुबकी की कसर थी। जीवन और मृत्यु में केवल एक पग का अंतर था। पीछे का एक पग कितना सुलभ था, कितना सरल, आगे का एक पग कितना कठिन था, कितना भयकारक।
कृष्णचन्द्र ने पीछे लौटने के लिए कदम उठाया। माया ने अपनी विलक्षण शक्ति का चमत्कार दिखा दिया। वास्तव में वह संसार-प्रेम नहीं था, अदृश्य का भय था।
उस समय कृष्णचन्द्र को अनुभव हुआ कि अब मैं पीछे नहीं फिर सकता। वह धीरे-धीरे आप-ही-आप खिसकते जाते थे। उन्होंने जोर से चीत्कार किया। अपने शीत-शिथिल पैरों को पीछें हटाने की प्रबल चेष्टा की, लेकिन कर्म की गति कि वह आगे ही को खिसके।
अकस्मात उनके कानों में गजाधर के पुकारने की आवाज आई। कृष्णचन्द्र ने चिल्लाकर उत्तर दिया, पर मुंह से पूरी बात भी न निकलने पाई थी कि हवा से बुझकर अंधकार में लीन हो जाने वाले दीपक के सदृश लहरों में मग्न हो गए। शोक, लज्जा और चिंतातप्त हृदय का दाह शीतल जल में शांत हो गया। गजाधर ने केवल यह शब्द सुने ‘मैं यहां डूबा जाता हूं’ और फिर लहरों की पैशाचिक क्रीड़ाध्वनि के सिवा और कुछ न सुनाई दिया।
शोकाकुल गजाधर देर तक तट पर खड़े रहे। वही शब्द चारों ओर से उन्हें सुनाई देते थे। पास की पहाड़ियां और सामने की लहरें और चारों ओर छाया हुआ दुर्भेद्य अंधकार इन्हीं शब्दों से प्रतिध्वनित हो रहा था।